शालभंजिका
शालभंजिका स्त्री की मूर्ति जिसमें स्त्री का विशेष शैली में चित्रण हैंं । यह किसी वृक्ष के नीचे उसकी एक डाली को पकड़े स्त्री की मूर्ति। 'शालभंजिका' का शाब्दिक अर्थ है - साल वृक्ष की डाली को तोड़ती हुई'।
इन्हें 'मदनिका' और 'शिलाबालिका' भी कहते हैं।
शालभंजिका पत्थरों से बनी एक महिला की दुर्लभ व विशिष्ट संरचना है, जो त्रिभंग मुद्रा में खड़ी है। ऐसा कहा जाता है कि ग्यारसपुर में पाई गई यह मूर्तियां 8वीं से 9वीं शताब्दी के बीच की है। इस उत्कृष्ट मूर्ति के बारे में कहा जाता है कि यह जंगल की देवी की है। शालभंजिका का अर्थ ‘साल वृक्ष की टेहनी को तोड़ना।’ फिलहाल शालभंजिका को ग्वालियर के पुरातात्विक संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। इस मूर्ति की खूबसूरती बेजोड़ हैं। जंगल की देवी समझी जाने वाली महिला अपने शरीर को तीन तरह से मोड़कर दुर्लभ अवस्था में है। शरीर में इतने खिचाव के बावजूद भी उनके चेहरे पर सुंदर भाव दिखाई देते हैं। शालभंजिका का बौद्ध धर्म से घनिष्ठ संबंध है। इस मत का आधार यह है कि रानी महामाया ने इस मुद्रा में राजकुमार सिद्धार्थ को एक साल वृक्ष के नीचे जन्म दिया था। कुछ आलोचकों का यह भी कहना है कि शालभंजिका एक पुरानी देवी है, जिसका संबंध प्रजनन से है। शालभंजिका का छोटा रूप हिंडोला तोरण पर भी देखा जा सकता है।
तथ्य
राजकुमार सिद्धार्थ के जन्म के समय उनकी माँ महामाया ने साल की डाल पकड़ी और हवा के चलने के कारण वह डाल ऊपर हुई और सिद्धार्थ का जन्म हुआ। ये मुस्कान बालक के जन्म और माँ बनने का सुखद अहसास की हैं।
भारतीय कला के चश्मे से
भारतीय कला में शालभंजिका के मूर्त्त रूप का प्रश्न है तो इनके प्रमुख दो रूप निर्मित हुए हैं।
1- मातृ भाव वाली शालभंजिका- जिसमे उनका मुख सहज, सौम्य एवं सराजनात्मक्ता की चेतना अभिव्यक्ति की प्रस्तुति करता हुआ ओर दोहद देह दृष्टि वाली होती है।इसमें शाल वृक्ष को पकड़े शालभंजिका (शाल के वृक्ष की डाली को भांझते हुए) महामाया का ही जन्म के समय का मूर्तांकन है। इसलिए इसमें मातृत्व भाव प्रदर्शित होता है। जैसा की नितिन जी ने बताया
2- काम प्रधान वाली शालभंजिका- प्रदर्शनात्मक एवम् अश्लीलता, इसमें नारी भाव भंगिमा में काम प्रधान होता है। ये शालवृक्ष ,आम्र वृक्ष, ताड वृक्ष, अशोक वृक्ष, अश्वत्थ वृक्ष, कदंबवृक्ष की डाली पकड़े हुए होती है। इसमें जो शालभंजिका एक सुंदरी के रूप में दिखाया जाता है। कारण की यह दृश्य उस समय का है, जब सिद्धार्थ के पिता ने तीन ऋतु के हिसाब से तीन महल बनवाए थे ओर सुंदरियों के द्वारा उनके मन को लुभाने हेतु आदेश दिया था। इसमें अनेक सुंदरियों ने भोग विलास की ओर लुभाने का प्रयत्न किया था। किन्तु वे सफल नहीं हो सकी।ताकी उन्हे वैराग्य की ओर से ध्यान हट जावे।
साल वृक्ष
जब ये पेड़ की टहनी से नीचे गुरुत्वाकर्षण के कारण गिरता है तो बच्चों की फिरकनी की तरह गोल गोल घुमते हुए ज़मीन पर आता है। हवा चलने पर जंगल में हज़ारों पंखुड़ियां (petals) ज़मीन पर जब गिरते है तो मनोरम दर्शन बनता है।
वेसे यदि साल वन का अनन्द लेना है तो वैशाख पूर्णिमा वाले माह में (इसी माह सिद्धार्थ का जन्म हुआ) उस समय अभी भी यदि आप साल वन में जायेंगे तो मनमोहक सौन्दर्य रहता है ।हवा चलने पर साल के हज़ारों पंखुड़ियां गोल-गोल घूमते हुए कलाबाज़ियाँ करते हुए पृथ्वी के धरातल से मिलने पर निकलते है । सदैव हरा-भरा रहने के कारण साल का वन गर्मी में खूब राहत देता है।
जैसे - मध्यप्रदेश का पचमढ़ी वन, बैहर, मंडला, अमरकण्टक सभी जगह साल वन है।
साल बीजों की नर्सरी तैयार नहीं की जा सकती क्योंकि उनके अंकुरण का समय बहुत ही कम होता है इसलिए यह अपने ही आप जंगल में अंकुरित होते रहते हैं लेकिन खड़गपुर( बंगाल) में इसकी नर्सरी है।
समान्यत: इसका बीज का अंकुरण का प्रतिशत बहुत अधिक होता है । वन में गिरते ही अंकुरित हो जाता है। इसलिए इसकी समन्यता नर्सरी नहीं बनाते है और एक अन्य कारण यह है की इनमें प्राण शक्ति बहुत कम होती हैं।
बीज संग्रहण के आते - आते इसकी जीवन समय (Vitality time) निकल जाता है और इनके जीवन के लिए विशेष आबोहवा (weathering) क़े लिये कुछ विसेष परिस्थितियाँ जो केवल वनो में ही मिलती है।
फोटो - साल के फूल
सारांश
साल भंजिका की चर्चा में जब साल पेड़ की बात चली तो एक नया विज्ञानीय तथ्य और पता चला की आख़िर साल का पौधा क्यों निर्सरी में तैयार नहीं होता की इसका प्राण काल (Vivality Period) बहुत कम होता है। लगभग 8 दिन का होता हैं। आठ दिन बाद इसका बीज अंकुरित नहीं होता है।
क्योंकि इसका भ्रूण (embryo deactive) या dead हों जाता है।
फोटो - साल के फूल
तथागत बुद्ध का जन्म साल वृक्ष के नीचे लुंबिनी वन में हुआ था । साल वृक्ष मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ व झारखंड के वनों में भी बहुतायत से पाया जाता है । यह वृक्ष आदिवासी समुदाय का सर्वाधिक पूजनीय वृक्ष है । हर ग्राम में कुछ साल वृक्ष पूजा स्थल के रूप में सुरक्षित रखे जाते हैं । इस पूजा स्थल को सरना कहा जाता है । बसंत ऋतु में जब साल के पेड़ पर फूल आते हैं तब आदिवासी लोग उत्सव मनाते हैं जिसे सरहुल कहा जाता है तथा पूजा को सरना पूजा कहा जाता है। इस अवसर पर वे सरना अर्थात अपने पूजा स्थल पर आकर प्रचलित रीति-रिवाजों के अनुसार साल वृक्ष की पूजा सामूहिक रूप से करते हैं तथा वाद्य यंत्रों के साथ नाच गाकर अपनी खुशी का इजहार करते हैं । जहां-जहां भी सालवन पाए जाते हैं वहां वहां के वनों में अथाह खनिज संपदा भी पाई जाती है। जैसे - कोयला, लोहा, एल्युमीनियम, जस्ता,तांबा, अभ्रक आदि पांच छत्तीसगढ़ के साल वनों में कवर्धा जिले में सोनाखान नामक स्थान पर सोने की खदान है देवभोग नामक स्थान पर हीरा पाया जाता है जिसके उत्खनन का छत्तीसगढ़ सरकार प्रयास कर रही है बालाघाट में तांबे की खदानें हैं कहने का तात्पर्य है कि जहां सालवन हैं वहां खनिजों का अपार भंडार भी मौजूद है।
दुखों को हरने वाले बड़ा देव
आदिवासी गोंड जनजाति का विश्वास प्राकृतिक चीजों में रहा है लेकिन अब स्थितियां बदल रही हैं। टोटम अर्थात सूरज, चाँद और पेड़-पौधों में उनका विश्वास कायम है। पर वे मंदिर नहीं बनाते। जब वे सुबह उठकर घर छोड़ते हैं तो अपने पूर्वजों और देवताओं को याद करते हैं, जिसमें बड़ा देव का प्रमुख स्थान है। सर्वप्रथम बड़ा देव के आगे वे अपना सिर झुकाते हैं। घरेलू रीति-रिवाजों और फसल के आगमन पर भी इन देवताओं की पूजा की जाती है। परिवार पर कोई विपदा आए या स्त्री को प्रजनन संबंधी समस्या हो, तब भी बड़ा देव की पूजा की जाती है। बड़ा देव को साल वृक्ष के प्रतीक के रूप में माना जाता है। गोंड अग्नि की पूजा नहीं करते हैं। हवन कार्य का प्रचलन भी उनमें नहीं है।
लोकप्रिय कथा-
एक लोकप्रिय कहानी के अनुसार एक बार बड़ा देव की पूजा की जा रही थी। तभी उन्होंने किसी बात पर नाराज होकर एक साल वृक्ष को अपना आशियाना बना लिया व वहीं रहने लगे। बड़ा देव से लोगों ने घर आने की अपील की लेकिन बड़ा देव ने घर आने से मना कर दिया। इसलिए आदिवासी मान्यता है कि साल वृक्ष पर ही बड़ा देव रहते हैं। तब से ही साल वृक्ष की पूजा की जाने लगी। बड़ा देव एक निराकार देवता के रूप में पूजे जाते हैं इसलिए उनका मंदिर नहीं बनाया जाता है। घरों में और बाहर दोनों जगह सामूहिक रूप से बड़ा देव की पूजा की जाती है। बड़ा देव की मान्याताएं मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी हैं। पूजा पद्धति भी एक जैसी ही प्रतीत होती है।