◆ झांसी की शान झलकारी बाई
◆ बाल्यकाल में ही शेर से किया युध्द
◆ रानी के वेश में डटी थीं झलकारी
युवा काफिला,भोपाल-
झलकारी बाई (22 नवंबर 1830 – 4 अप्रैल 1857) न रानी थी और न पटरानी। वह न किसी सामन्त की बेटी थी और न किसी जागीरदार की पत्नी। 22, नवम्बर 1830 में वह तो भोजला गाँव के एक साधरण परिवार में पैदा हुई थी। उनके पिता का नाम मूलचन्द तथा माता का नाम झलकारी बाई था। घर में कपड़ा बुनने का काम होता था।
जाति और गरीबी के दंश से पीड़ित परिवार चाहते हुए भी झलकारी को न पढ़ा सका। ऐसी स्थिति में परिवार में बच्चों को भी परम्परागत कार्य करना पड़ता था। बालविवाह प्रथा चरम पर थीं ऐसे में पूरन नामक युवक से बाल्यावस्था में ही शादी तय हुई।
झलकारी के बारे में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि विवाह से पहले ही जब वह घर से जंगल जलाऊ ईंधन की लकड़ी आदि लेने के लिए जाती थी तो एक बार बाघ ने उस पर हमला कर दिया,जिससे बचने के लिए उसने बहादुरी से बाघ का सामना किया और उसे अपनी कुल्हाड़ी से मार दिया। इसकी खबर दूर-दूर तक फैल गईं। झलकारी का नाम जनसामान्य की ज़ुबान पर आम हो गया फिर क्या था झलकारी के द्वारा बाघ मारने की खबर रानी लक्ष्मीबाई तक तो पहुँचनी ही थीं और पहुँच भी गईं। इस तरह उनकी बस्ती के बाहर नगर में भी उनका मान- सम्मान बढ़ा लेकिन उस सम्मान को मनुवादी व्यवस्था कहा स्वीकार करने वाली थीं।
आज भी बुंदेलखंड के लोकगीतों में झलकारी बाई की शौर्यगाथा के चर्चे घर-घर होते हैं। आज भी उनके शौर्य की कहानी सुनाई जाती हैं। चूंकि उनकी शक्ल रानी लक्ष्मीबाई से मिलती जुलती थी, इसलिए महाराष्ट्रीय स्त्री की वेश में सजधज कर घोड़े पर सवार होकर तथा हाथ मे तलवार लिए जनरल ह्यूरोज़ से मिलने चली जाती थीं। झलकारी का पति पूरन पहलवानी करता था।
झांसी में रानी ने एक महिला फौज बनाई थीं जिसकी कमान झलकारी के हाथों में दी गई। झलकारी ने पहले से ही घुड़सवारी करना, तलवार चलाना, गोला फेंकना तथा बन्दूक चलाना आदि सीख लिया था। उनके पति को तोप चलाना रानी के सैनिकों ने सिखाया था। इस तरह बहुजन समाज के लोगो ने झांसी की अंग्रेजों से रक्षा करने की ठानी।
सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अग्रेंजी सेना से रानी लक्ष्मीबाई के घिर जाने पर झलकारी बाई ने बड़ी सूझबूझ, स्वामीभक्ति और राष्ट्रीयता का परिचय दिया था।
रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अपने अंतिम समय अंग्रेजों के हाथों पकड़ी गईं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया। उस युद्ध के दौरान एक गोला झलकारी को भी लगा और वह जमीन पर गिर पड़ी। ऐसी महान वीरांगना थीं झलकारी बाई। झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। झलकारी बाई के सम्मान में सन् 2001 में डाक टिकट भी जारी किया गया।
भारत देश और झांसी सदैव झलकारी बाई का ऋणी रहेगा।
वीरांगना झलकारी बाई
जन्म : 22 नवंबर 1830
मृत्यु : 4 अप्रैल 1857
वीरांगना झलकारी बाई के बारे में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियां...
जा कर रण में ललकारी थी,
वह तो झांसी की झलकारी थी ।
गोरों से लड़ना सिखा गई,
है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।
मूल लेख: मोहनदास नैमिशराय
संपादन – रजनी गजभिये