ईसा की छठी शताब्दी में उत्तर भारत में एक शक्तिशाली राज्य था, जिसका नाम था कान्यकुब्ज (कन्नौज) । यहां पर राजा प्रभाकरवर्धन का राज्य था। वे बड़े वीर, पराक्रमी और योग्य शासक थे। राजा प्रभाकरवर्धन ने महाराज के स्थान पर महाराजाधिराज और परम भट्टारक की उपाधियां धारण की थीं। राजा प्रभाकरवर्धन छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मालवों, गुर्जरों और हूणों को पराजित कर चुके थे, किंतु राज्य की उत्तर-पश्चिम सीमा पर प्रायः हूणों के छुट-पुट उपद्रव होते रहते थे। यहां मंत्रियों की समिति ही प्रबंधन का कार्य देखती थी। दो पीढ़ियों के अंतर में ही 3 राजा राज्य के स्वामी बन गए। प्रभाकरवर्धन के दो बेटे थे -
1 - राज्यवर्द्धन
2 - हर्षवर्द्धन
हर्ष का जन्म
राजा प्रभाकरवर्धन की रानी का नाम यशोमती था। रानी यशोमती के गर्भ से जून 590 में एक परम तेजस्वी बालक ने जन्म लिया। यही बालक आगे चलकर भारत के इतिहास में राजा हर्षवर्धन के नाम से विख्यात हुआ। हर्षवर्धन का राज्यवर्धन नाम का एक भाई भी था। राज्यवर्धन हर्षवर्धन से चार वर्ष बड़ा था। हर्षवर्धन की बहन राज्यश्री उससे लगभग डेढ़ वर्ष छोटी थी। इन तीनों बहन-भाइयों में अगाध प्रेम था।
पिता मृत्यु
पिता की मृत्यु के पश्चात राज्यवर्द्धन राज सिंहासन का अधिकारी बना । राज्यवर्धन बहुत योग्यता के साथ शासन करता था जिससे पूर्वी भारत के कर्ण-सुवर्ण नामक राज्य का स्वामी राजा शशांक (गौड़ या बंगाल का राजा नरेंद्र गुप्त) बहुदा अपने मंत्रियों से कहा करता था कि यदि हमारे सीमांत प्रदेश का राजा इतना योग्य शासक है, तो यह बात हमारे राज्य के लिए अवश्य अनिष्टकारक है। मंत्रियों ने राजा की बात का विचार करके और उसकी सुमति लेकर दादा राज्यवर्धन को गुप्त रूप से मार डाला।
सिहांसनारूढ़
हर्ष के पिता का नाम प्रभाकरवर्धन था। प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात राज्यवर्धन राजा हुआ, पर मालव नरेश देवगुप्त और गौड़ नरेश शशांक की दुरभि संधिवश मारा गया। अर्थात बड़े भाई राज्यवर्धन की हत्या के बाद हर्षवर्धन को 606 में राजपाट सौंप दिया गया। खेलने-कूदने की उम्र में हर्षवर्धन को राजा शशांक के खिलाफ युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा। शशांक ने ही राज्यवर्धन की हत्या की थी। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत में अराजकता की स्थिति बनी हुई थी। ऐसी स्थिति में हर्ष के शासन ने राजनीतिक स्थिरता प्रदान की। राजकुमार ने जब राजपाल ग्रहण किया तब उसने अपने आपको राजकुमार ही कहा तथा अपना उपनाम शिलादित्य रखा। कोई 6 वर्ष के कठिन परिश्रम के पश्चात उसने समस्त भारत को जीत लिया। जिस समय उसने राजपाट ग्रहण किया था तब उसकी सेना में 5000 हाथी 20000 घुड़सवार पर 50000 पैदल सेना थी जो कि अब बढ़कर 60 हजार हाथी 1000000 घुड़सवार हो गए।
राजकुमार ने राजपाट ग्रहण करने के पश्चात राज्य में आज्ञा दे दी कि समस्त भारत में कहीं पर भी जीव हिंसा न की जाए और ना ही कोई व्यक्ति मांस भक्षण करें अन्यथा प्राण दंड दिया जाएगा इन कार्यों को करने वाले का अपराध कदापि क्षमा नहीं किया जाएगा उसने गंगा के किनारे पर कई हजार स्तूप सौ सौ फीट ऊंचे बनवाएं जिसमें खाने और पीने की सब प्रकार की वस्तुएं रहती थी यहीं पर वैद्य लोग औषधियों सहित सदा तैयार रहते थे जिससे यात्री और निकटवर्ती दुखी दरिद्र व्यक्तियों को बिना किसी प्रकार की रुकावट के अपरिमित लाभ पहुंचता था ।
विमुक्ति मेला ही कुंभ का मेला
हर्षवर्धन प्रत्येक 5 वर्ष में विमुक्ति मेले का आयोजन भव्य स्तर पर करता था, जिसे आज कुंभ का मेला कहा जाता है। जिसमें वह अपना संपूर्ण खजाना दान कर देता था , केवल सेना के हथियार शेष बच जाते थे जिसका दान करना न तो उचित ही था और न दान कर देने पर भिक्खुओं के ही काम के थे। प्रत्येक वर्ष सभी प्रांतों के भिक्खुओं (श्रमणों) को बुलाकर सभी दिनों सभी प्रकार की वस्तुएं जैसे अन्न, जल,औषधि और वस्त्र दान करता था ।
विमुक्ति अर्थात कुंभ के मेले में
विमुक्ति मेले में 20 अन्य देशों के राजा भी शिलादित्य की आज्ञानुसार अपने-अपने देश के सुप्रसिद्ध और योग्य विद्वान श्रमण तथा जनता सहित आकर इक्कट्ठे होते हैं।
राजकुमार शिलादित्य (हर्षवर्द्धन) ने पहले ही गंगा नदी के पश्चिमी किनारे पर एक बड़ा संघाराम बना दिया हैं और पूर्वी तट पर 100 फ़ीट ऊंचा एक स्तूप बनवा दिया हैं। जिसके मध्य में भगवान बुध्द की उतनी ही ऊंची सोने की मूर्ति, जितना ऊंचा राजा था,रखी हुई थीं । यह घटना बसंत ऋतु के दूसरे महीने में हो रही हैं। महीने के प्रारंभ तिथि से 21 वीं तिथि तक श्रमणों को उत्तमोत्तम दान दिया जाता हैं । सम्पूर्ण खजाना दान करने पर शिलादित्य का खजाना खाली हो जाता तब विदेश से आए हुए राजा उसे दान देकर, उसके राजकोष को पुनः भर देते ।उसने कितने ही धर्म सिंहासनों को सोने से जड़वा दिया था और अनेक उपदेश ना हो धम्मा देश नाव को रत्नों से जड़वा दिया था । उसने भिक्खुओं को वादानुवाद (Debate) करने की आज्ञा दे रखी थी, तथा उनके अनेक सिद्धांतों पर स्वयं विचार करता था कि कौन सा सिद्धांत सबल है और कौन सा निर्बल हैं । भिक्खुओं को दान, दुष्टों को दंड, दुष्टों का अनादर और ज्ञानियों का आदर करने के लिए सब प्रकार की तैयारी रखता था । यदि कोई भिक्खु सदाचार के नियमानुसार ठीक आचरण (सदाचरण) करता तो धर्म के मामले में विशेष प्रसिद्ध हो जाता तब राजकुमार उसको बड़ी प्रतिष्ठा के साथ सिंहासन पर बैठाकर उसके धार्मिक उपदेशों का श्रवण करता ।
यदि कोई भिक्खु, सदाचारी तो पूर्ण रूप से होता था परंतु विद्वान ना होता था, तो उसकी प्रतिष्ठा तो होती थी किंतु विशेष नहीं। यदि कोई व्यक्ति धर्म का तिरस्कार करता तो वह तिरस्कार सर्वसाधारण पर प्रकट हो जाता था तो उस समय को देश निकाला का कठोर दंड दिया जाता था। जिससे उसके किसी देश भाई उसका मुंह न देख सके ।