आंबेडकर जयंती विशेष-
समानता के लिये अंग्रेजी का शब्द equality का प्रयोग किया जाता है। जबकि समरसता के लिये harmony शब्द का प्रयोग किया जाता है।
जहां संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर का कथन था कि प्रत्येक स्तर पर बराबरी चाहिये । भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में डॉ आंबेडकर समानता का अधिकार की बात को लिखते हैं कि -" राज्य, भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को कानून के समक्ष समता से या कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।"
भारतीय संविधान के आर्टिकल 14 के हिसाब से इसका मतलब यह है कि सरकार भारत में किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं करेगी और समता व समानता को प्रत्येक स्तर पर बराबर लागू करायेगी ।
समानता और समरसता में मौलिक अन्तर है समानता जहां हर तरह की बराबरी को कहते है वही समरसता केवल विचारो की बराबरी को कहते है।
समरसता का विचार और व्यवहार कुछ इस तरह है कि हम आपको अपने में सम्मिलित कर रहे हैं या समा रहे हैं और इसके पीछे उपकार या एहसान की भावना है। यह इस बात को मान्यता देने जैसा है कि हम श्रेष्ठ या उच्च हैं और तुम निम्न(कनिष्ठ) या निचले स्थान पर हो। यह इस बात को मान्यता देना है कि जन्म से प्राप्त विषमता हमे मंजूर है या हम उसका समर्थन करते है।
अक्सर एक खास तर्क दिया जाता है कि हाथ की सभी पाँचों अंगुलियाँ एक समान (जैसी) नहीं होतीं। इसका जवाब यह है कि हाथ की पाँचों अंगुलियाँ एक जैसी हों, इसका मतलब समता नहीं है। लेकिन पूरी दुनिया में किसी भी धर्म, जाति या नस्ल की महिला और पुरुष सभी के हाथ में पांच अंगुलियाँ होती हैं, यह समता है। हर इन्सान का खून लाल है, हर इन्सान में तर्क करने की क्षमता है, यह सोच समता की सोच है। इसे नकारते हुए इंसान को जन्म के आधार पर विभिन्न जातियों में बांटकर कनिष्ठ और अछूत मानकर समाज को विभाजित करना, यह विषमता है। समतावादी और समरसतावादी होना यह बिल्कुल अलग और विरोधी बातें हैं, यह समझ लेना ज़रूरी है। अब जैसे-जैसे यह एहसास वंचित वर्ग और बहुजन समाज को होने लगा कि समरसता की अवधारणा ही गलत है और हमारे हित मे नहीं है इससे प्रत्येक वर्ग का मानव अब जागने लगा हैं । इसके बाद ही ‘समरसता’ और ‘वनवासी’ जैसी शब्दावली का उपयोग करके जन समूहों के बीच काम शुरू करके एक भ्रम निर्माण करने की शुरुआत की गई। किसी भी समाज में काम की शुरुआत करनी हो तो सबसे पहले शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के ज़रिए ही काम किया जाता है और एक बार जब लोगों का भरोसा जम जाए, तब अपने विचारों को थोपना आसान हो जाता है। यहाँ भी ऐसा ही हुआ हैं।
सामाजिक जीवन में शब्दावली का अपना महत्व होता हैं। जैसे भोजपुरी जनपद से लेकर अंग प्रदेश और मगध क्षेत्र तक खूब प्रचलित है यह मुहावरा की तेल्हाड़ा में चले जाओ अर्थात बर्बाद हो जाओ।
बौद्धों के प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय से 40 किलोमीटर दूर और नालंदा से भी पुराना रिश्ता रहा है तेल्हाड़ा का । तेल्हाड़ा का बौद्ध विश्वविद्यालय अत्यंत प्राचीन व श्रमण संस्कृति का केंद्र रहा है। इस प्रकार मुहावरे या शब्दों के माध्यम से विचार का संदेश दिया जाता है। सामाजिक- राजनैतिक कार्यकर्ता को हर बार यह बताने की ज़रुरत नहीं पड़ती कि उसकी वैचारिक धारणा क्या है? वह बोलते या लिखते समय जिस शब्दावली का उपयोग करता है, उसी से उसकी सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक विचारधारा का पता चलता है।
जो ‘समरसता’ कि बात करता है, वह ‘समता’ नही चाहता। वह भारतीय संविधान के मूल्य को नही मानता। इसीलिये बार-बार संविधान को बदलने की बात करता है। हमें साफ तौर पर यह बात अपने दिमाग में रखनी चाहिए कि हम संविधान को मानते है इसलिये हम ‘समता’ के पक्षधर है, ‘समरसता’ के नही।