सम्राट अशोक जयंती विशेष-
मगध का साम्राज्य और बौद्ध धम्म एक दूसरे के पूरक रहे हैं कारण उस समय के मगध जनपद का राजा बिंबिसार महाकारुनिक बुद्ध (ई.पू. 563 से 483 ) का समकालीन था। बिंबिसार जब वृद्ध हुआ तो उसके पुत्र अजातशत्रु (शत्रुविहीन) ने पिता की हत्या कर डाली और स्वयं राजगद्दी पर बैठ गया। महाकारुणिक बुद्ध का राजगृह से कुशीनगर आते जाते समय पाटलिपुत्र ग्राम में विश्राम होता ही था। वैसे तो राजा अजातशत्रु ने पाटलिपुत्र नगर की नींव रखी थी किंतु वह उसे पूरा न कर सका। जिस प्रकार अजातशत्रु ने अपने पिता बिंबिसार की हत्या की थी ठीक उसी प्रकार उसके पुत्र उदाईभद्र ने भी उसके पिता की हत्या कर डाली। इसके बाद शुरू हुआ पाटलिपुत्र नगर का असल में निर्माण। उदाईभद्र ने पाटलिपुत्र को विशाल और शानदार नगर बना दिया। इसी कारण राजगृह को छोड़ उसने मगध की राजधानी पाटलिपुत्र को बना दिया और ऐसे इतिहास में दर्ज हुआ उदाईभद्र पाटलिपुत्र नगर का संस्थापक ।
मौर्य वंश का आरंभ-
सम्राट अशोक के दादा और मौर्य साम्राज्य के संस्थापक सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने मौर्य साम्राज्य की नींव आमात्य चाणक्य के साथ मिलकर रखी । चाणक्य तक्षशिला का प्रसिद्ध आचार्य था। तक्षशिला उस समय विद्या का एक बड़ा और विशाल केंद्र था। चाणक्य अपने समय का राजनीति शास्त्र का सबसे बड़ा ज्ञानी व्यक्ति था और अर्थशास्त्र का ज्ञाता भी था। वैसे तो आचार्य चाणक्य देखने में बड़ा कुरूप था कारण उसके सामने के 2 दांत टूटे हुए थे और इसी कारण राजा धनानंद ने उन्हें नीच कहकर राजमहल से धक्के देकर बाहर निकाल दिया था। भला चाणक्य ऐसे अपमान को कहां से रहने वाला था उसने अपने ज्ञान से गर्जना की - राजा उद्धत हो गया है और समुद्र से घिरी पृथ्वी अब नंद वंश का नाश ही देखेगी। चाणक्य ने सबके सामने प्रतिज्ञा की थी अतः वहां इस प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए दृढ़ संकल्पित था। तभी उसकी नजर में एक बालक आया जिसका नाम चंद्रगुप्त था और उसमें सम्राट बनने के सभी लक्षण थे। सम्राट अशोक के जन्म की कई कथाएं प्रचलित है । हम उन सभी को छोड़ सिर्फ इतना याद रखें कि अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी या जनपद कल्याणी था। वह चंपा के धनवान सेठ की परम सुंदरी कन्या थी। इसी कारण उसका नाम सुभद्रा नंगी जनपद कल्याणी पड़ा। पिता ने अपने लड़की के भविष्य के बारे में ज्योतिष से पूछा तो उन्होंने बताया कि या तो उसका पति राजा होगा और उसका पुत्र सम्राट बनेगा और दूसरा भिक्षु बनेगा। सुभद्रांगी ने एक पुत्र को जन्म दिया । सम्राट बिंदुसार ने अपनी रानी सुभद्रांगी से पूछा इस बालक का क्या नाम रखा जाए???
रानी ने उत्तर दिया -देव ! इस बच्चे के पैदा होने से मैं शोक रहित हो गई हूं इसलिए इस बालक का नाम अशोक रखा जाए।
अशोक के पिता सम्राट बिंबिसार ने सर्वप्रथम अशोक को उज्जयिनी का उपराजपाल बनाकर भेजा। रास्ते में उसे विदिशा नगर जो कि व्यापार का मुख्य केंद्र था बड़ा ही मनोरंजक और धनधान्य से परिपूर्ण लगा । नगर की शोभा देखने के लिए अशोक कुछ दिन वहां रुका। वहां के सामंत और श्रेष्ठियों ने उसका यथा उचित आदर सत्कार किया। उसी नगर में एक श्रेष्ष्टि रहता था उसकी कन्या थी वह सुंदर और सुशील थी। इसी कारण उसके पिता ने उसका नाम देवी रखा था। बाद में विदिशा महादेवी के नाम से मशहूर हुई और उपराज अशोक का देवी के साथ परिचय हुआ दोनों एक-दूसरे की ओर आकर्षित हुए और देवी के पिता ने उसका विवाह अशोक के साथ ईसवी पूर्व 285 में कर दिया।जिससे अशोक को पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा प्राप्त हुए।
तक्षशिला में-
कुछ दिनों के पश्चात सुशील जो कि अशोक का भाई था और तक्षशिला का उप राज्यपाल भी था। तक्षशिला में उठेविद्रोह को शांत न कर पाया। पुराने समय में सुविधाएं न होने के कारण सुदूर राज्यों में समय-समय पर विद्रोह भड़क ही जाता था। उज्जैन में मिले यश के कारण राज्य के अधिकारी अशोक की शक्ति और कार्य क्षमता से परिचित थे। अशोक सुंदर ना सही पर वीर और दृढ़ संकल्प वाला था । हर चुनौती का सामना करने में सक्षम था। इसीलिए सम्राट बिंदुसार ने तक्षशिला के विद्रोह को शांत करने के लिए अशोक को उज्जैन से बुला लिया। वह अपने साथ दो नन्हे-मुन्ने बच्चों को भी लाया जिनका नाम महिन्द और संघमित्ता था। ऐसा कहा जाता है कि अशोक की रानी देवी कभी पाटलिपुत्र नहीं गई । जब तक्षशिला के लोगों को नगर में उपराज अशोक के आने की सूचना मिली तो सभी राजमार्गों को अच्छी तरह सजाया गया, पानी से भरे हुए घडों को लेकर उपराज का स्वागत किया गया तत्पश्चात नगर वासियों ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया। तक्षशिला के नागरिक आपके या सम्राट के विरोधी नहीं है और ना ही राजद्रोही है किंतु दुष्ट अमात्य ने तक्षशिला के नागरिकों पर बहुत अत्याचार किए और हमें अपमानित किया है । हम शांति के साथ-साथ तक्षशिला के लिए योग्य शासक चाहते हैं । वे उपराज अशोक की अगवानी कर बड़े सत्कार के साथ उसे नगर में ले गए और इस प्रकार अशोक ने वहां शांति स्थापित की।
बिंदुसार की मृत्यु-
मौर्य साम्राज्य के दूसरे प्रतापी शासक सम्राट बिंदुसार मरणासन्न थे। इस कठिन अवस्था में न सुसीम उनके पास था और ना ही अशोक। अंतिम सांस लेने से पहले सम्राट अपना राजमुकुट सुसीम के सर रखना चाहते थे और उसे सम्राट बनाना चाहते थे। उस समय सुसीम सुदूर कश्मीर में था। यदि आमात्य चाहते तो उसे बुला भेजते किंतु वे चाहते थे कि अशोक ही सम्राट बने और इस प्रकार अशोक को जैसे ही संदेश प्राप्त हुआ उसने बिना देर किए उज्जैनी से पाटलिपुत्र के लिए रवानगी ली। सम्राट बिंदुसार ने अशोक को सामने पाकर अपना राज मुकुट उतारा और उसके सिर रख दिया।
राज्यभिषेक-
उत्तराधिकार प्राप्त करने के लिए अपने जेष्ठ भाई सुसीम के साथ अशोक को संघर्ष करना पड़ा। अशोक यह बात भलीभांति जानते थे कि उन्हें राजगद्दी इतनी आसानी से ना मिलने वाली और इसके लिए उन्होंने पहले ही सारी तैयारी कर रखी थी। अशोक को अपने विरोधीयों से घमासान युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए कुल 4 साल लग गए । इसी कारण उन्होंने सम्राट बन पाने के लिए भी 4 वर्ष तक अपना राज्य अभिषेक नहीं कराया । जब उनके विरोधी खत्म हो गए तब 4 वर्ष पश्चात उनका राज्याभिषेक हुआ और इन्हीं विशेषताओं के कारण उन्हें चंडाशोक (बेरहम या निर्मम) के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा इतिहास में दर्ज हैं कि अशोक ने अपने सभी भाईयों की हत्या नहीं की और बहुत से भाइयों को उन्हें मगध साम्राज्य के कई प्रान्तों की बागडोर सँभालने के लिए उपराज बना दिया । अशोक का साम्राज्य पुरे भारतीय उप महाद्वीप में फैला हुआ था। यह उस समय तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य था जो उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में अफ़गानिस्तान तक पहुँच गया था।
कलिंग विजय -
कलिंग राज्य भारत के किनारे महानदी गोदावरी और कृष्णा नदी के बीच का प्रदेश था उसकी पूर्वी सीमा पर बंगाल की खाड़ी और शेष तीनों सीमा मौर्य साम्राज्य की सीमा से लगी थी। जलमार्ग होने के कारण व्यापार के हिसाब से मौर्य साम्राज्य का यह एक प्रमुख केंद्र था। कलिंग के लोग सदैव स्वतंत्र रहे ( किसी के अधीन नहीं रहे)। यहां बड़ी संख्या में हाथी दांत का सामान बनता था । युद्ध के समय हाथी दांत का सामान बहुत काम आता था। व्यापार मार्ग में होने के कारण कलिंग सदैव मौर्य सम्राज्य से अपनी मांगे मनवा ही लेता। परेशान होकर सम्राट अशोक ने कलिंग पर आक्रमण किया उस वक्त उसके पास 60000 पैदल सेना 1000 घुड़सवार तथा 700 हाथी थे। कलिंग के युद्ध में 1 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु ने अशोक को झकझोर दिया सम्पूर्ण रणभूमि पर चारों ओर लाशे ही लाशे बिछी थीं तभी वहाँ से शांत चित्त भंते न्यग्रोध चारिका करके लौट रहे थे । उनकी चाल सम्यक थी । ठीक उसी समय अशोक की दृष्टि उस भिक्षु पर गई जो इतनी भयावह स्थिति में भी सम्यक चाल से चल रहा था । अशोक ने तुरंत आवाज लगाकर भंते न्यग्रोध से कहा की -
"मैं सम्राट हूँ फिर भी इन मुर्दो को देखकर मेरा मन विचलित हो रहा हैं, लेकिन आप इन लाशो को देखकर जरा भी विचलित नहीं हुए । इसका क्या कारण हैं ???"
भिक्षु न्यग्रोध बोले - क्या इतने लोगों को मारने वाला सम्राट हो सकता हैं? ??
तेरी कलिंग जीतने की तृष्णा और व्यापार मार्ग को अपने राज्य में मिला लेने की इच्छा के कारण आज अनेक महिलाएँ विधवा हो गई और हजारों बालक/बालिका पिताविहीन हो गए ।
भंते न्यग्रोध ने तथागत की बताई गई - मैत्री,प्रज्ञा,करूणा व अहिंसा तत्वज्ञान का उपदेश राजा को दिया । अशोक ने प्रतीज्ञा की - मैं आज से किसी भी प्रकार का शस्त्र उपयोग नहीं करूँगा । मैं धम्मानुरूप आचरण करूँगा । मैं आज सही अर्थो में विजयी हुआ हूं। ऐसा दृढ़ संकल्प अशोक ने भंते के समक्ष लिया ।
चक्रवर्ती सम्राट अशोक महान ने आश्विन मास के शुक्ल पक्ष के दशमी के दिन बुद्ध धम्म की दीक्षा लेकर सम्पूर्ण जम्बूदीप को बौद्धमय बना दिया। कुल 84000 बौद्ध स्तूपो की स्थापना की और धम्मचक्र को गतिमान कर दुनिया में समता, शांति, अहिंसा एवं भाईचारे का संदेश दिया। उसी समय से अशोक विजय दशमी को धम्मचक्र प्रवर्तन दिन के रूप में मनाया जाता रहा है। बाद में उस दिन मौर्य वंश के दसवे बौद्ध सम्राट बृहदत्त मौर्य की पुष्यमित्र शुंग द्वारा हत्या कर प्रतिक्रांति की गई और इस दिन की ऐतिहासिकता को खत्म कर दीया गया।
जिसे बाबा साहब डॉ आम्बेडकर ने नागपूर में 14 अक्टूबर 1956 को 14 लाख बहुजनो को बौद्ध धम्म की दिक्षा सम्राट अशोक विजय दशमी के दिन पुनः देकर धम्मचक्र को गतिमान किया। इसलिए हमें पुरी दुनिया में धम्मचक्र प्रवर्तन दिन अशोक विजयादशमी के दिन ही मनाना चाहिये। ताकि हम धम्मचक्र प्रवर्तन दिन को पुनः स्थापित कर सके। और अपनी सांस्कृतिक की पहचान बना सके। क्योंकि एकरूपता से ही सांस्कृतिक पहचान बन पायेगी। हम इस दिन के महत्व को समझ नहीं रहें हैं। हम जब उस दिन धम्मचक्र प्रवर्तन दिन मनायेंगे तब उस दिन धम्मचक्र प्रवर्तन दिन के रूप में पहचान बनेगी। और दशहरा का महत्व खत्म होगा।
आगे चलकर महेद्र और संघमित्रा को श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए उत्तरदायी माना गया। आज भी श्रीलंका का अनुराधा पूर्व में विद्यमान बोधिवृक्ष संघमिता की गाथा गाता है।
चक्रवर्ती सम्राट अशोक का शासन 40 वर्ष का था, जबकि उसके पिता का शासन 25 वर्ष का और मौर्य वंश के पहले सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का काल 24 वर्ष का था। अशोक का मानना था कि बौद्ध धर्म सिर्फ इंसानों के लिए ही नहीं बल्कि जानवरों और पेड़-पौधों के लिए भी हितकारी है और उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने धम्म प्रचारक श्रीलंका, नेपाल, सीरिया, अफ़ग़ानिस्तान, यूनान तथा मिस्र तक भेजे।अशोक के शासन काल में ही कई प्रमुख विश्वविद्यालयों की स्थापना की गयी, जिसमे तक्षशिला और नालंदा विश्वविद्यालय प्रमुख हैं।तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक द्वारा बनाया गया मध्य प्रदेश में साँची का स्तूप आज भी एक प्रसिद्द पर्यटक स्थल है।अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य लगभग 50 और वर्षों तक चला।
असली मायने में सम्राट अशोक महान राष्ट्र निर्माता थे। उन्होंने भारत को एक महान राष्ट्र के रूप में संसार के सामने खड़ा कर दिया। उन्होंने अपने लेखों में पाली भाषा का उपयोग किया जो सर्वसाधारण की भाषा थी उनके द्वारा संपूर्ण राज्य में एकता स्थापित की गई। सम्राट अशोक एक महान सम्राट है किंतु उन्होंने अपने आप को कभी भी सम्राट नहीं कहा उन्होंने अपने सभी शिलालेखों में अपने नाम के आगे देवानाम प्रिय और धम्माशोक ही लिखा ।
सम्राट अशोक के निर्माण कार्य में विशेष स्थान स्थान उन विशाल खंभों का है, जो चुनार के पत्थरों से बना हुआ है । वजन में प्रायः 50 टन के हैं। उनकी सामान्य ऊंचाई 40 से 50 फीट तक की है। वे एक पत्थर से ही बनाए हुए हैं और उनके ऊपर चमचमाती पॉलिश इतनी अद्भुत है कि दर्शकों को अचरज में डालती हैं।
आज यदि इस प्रकार की पॉलिश किसी कलाकृति में नहीं मिलती।
अशोक स्तम्भ से लिए गए अशोक चक्र को भारत के राष्ट्रीय ध्वज में स्थान दिया गया है तथा चार शेरों वाले चिन्ह को राष्ट्रिय चिन्ह का सम्मान दिया गया है।